वो हिंसा भी झेल रहे
वो पत्थर भी खा रहे…
उनका आँगन तरस रहा
वो सबके परिवार सजा रहे…
दिन भी वही और रात भी वैसी
सोचो ली होगी वो शपथ है कैसी..
एक हाथ में फ़र्ज़ की लाठी
एक हाथ में जान लिए…
दौड़ रहे वो भाग रहे..
और सबकी सांसे बचा रहे..
लिए देश को कन्धों पर
छोड़ क् सब घरबारों को…
जो धर्म आज भी निभा रहे उन सब वीर जियालों को…
तुम जीते रहो तुम स्वस्थ रहो
ये प्रणाम तुम सब मतवालों को।
विक्रम सिंह तोमर उज्जैन।