इंसानियत के लिए समझने होंगे इबादत के असली मायने

खुदा की इबादत से जिन्दगी संवारनें का रास्ता अख्तियार करने वालों के बीच आम आवाम खुद-ब-खुद उसी नेक रास्ते पर चलने लगता है। माहौल का फर्क जिन्दगी जीने के फलसफे पर होते ही है इसीलिये हमेशा आगे बढने वालों की जिंदगी में झाकने और उससे सीखने की हम निरंतर कोशिश करते रहते हैं। हमारे दोस्त रज्जाक खान दिल्ली आये और हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगार चलने के लिए तैयारी लगाने लगे। हम भी उनके साथ हो लिये। आंगन में महफिल सजी थी। दरगाह में नातखानी का प्रोग्राम चल रहा था। खिचडी दाढी वाले कब्बाल मियां अपने शागिर्दों के साथ खूबसूरत बंदिशों से सजी-संवरी नात पेश कर रहे थे। उनकी खास किस्म की गायकी से निकल कर जब हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्लाहो अलैहे बसल्लम की शान में अल्फाजों की खुशबू फैली  तो महफिल में मौजूद लोगों के दिलों की धडकनें बंदगी के लिए बेताब हो उठी। इनामों की बौछार होने लगी। जिस्मानी अहसास कहीं दूर जाकर रूहानी बन गये। पूरा माहौल जन्नत के मानिंद हो उठता। हम आश्चर्यचकित थे कि महाराज छत्रसाल की नगरी के खुर्शीद निजामी कब्बाल ने अपनी गायकी से इतना बडा मुकाम कैसे हासिल कर लिया। प्रोग्राम के बाद जैसे ही आमना-सामना हुआ, वह लिपट गये। रज्जाक भाई ने प्रश्नवाचक नजरों से हमें घूरा। पुरानी यादें ताजा हो गई। तालाब के किनारे बैठकर खुर्शीद मियां से गजलें सुनने का दौर जेहन में कौंधने लगा। दोस्तों के साथ बैठकर घंटों कब्बाली का रियाज करने से लेकर मशहूर मजलिसों तक पहुंच दर्ज करना, आसान नहीं होता। खुर्शीद मियां ने बताया कि बुंदेलखण्ड की धरती से निकलकर पहली बार नागपुर में अपने हुनर को दिखाने का मौका मिला। बडा प्रोग्राम, दूर-दराज का मामला और मराठी भाषी लोगों की भीड से नर्वस हो गया था। मालिक को याद किया, उस्ताद का नाम लिया और अपने साजिंदों को खास समझाइश दी। वो प्रोग्राम था और आज का दिन, पीछे मुडकर नहीं देखा। बुलावे पर बुलावे आते रहे। तारीखों पर तारीखें तय होतीं रहीं। नातखानी, नातिया मुशायरा और खुशी के मौकों पर महफिलों के साथ साथ भजन, कीर्तन और धार्मिक संगीत के प्रोग्राम करने वाली कमेटियां छोटी-बडी गाडियों से लेने के लिए पहुंचती रहीं। शुरूआत के जमाने में पेंटरों से बडे-बडे बैनर बनवाये जाते। पोस्टरों पर अलग-अलग तरह की तस्वीरें छापी जाती थी। गली-मुहल्लों से लेकर सडकों-बाजारों तक पोस्टर-बैनरों की भरमार होती थी। आज जमाना बदल गया है। पोस्टर, बैनर और माइक की मुनादी की जगह फ्लैक्स, होडिंग्स और टीवी के स्ट्राल ने ले ली है। सीधे बुलावे की जगह अब नेटवर्किंग ने ले ली है। मेहनताने का रूप बदलकर पैकेज सिस्टम बन गया है परन्तु खुर्शीद मियां प्राइवेट महफिलों को छोडकर आज भी किसी दरगाह, मंदिर या धार्मिक स्थलों के लिए मेहनताना तय नहीं करते। उर्स पर पहुंचकर हाजिरी लगाने के लिए वे हमेशा तैयार रहते हैं। जो भी मिल जाये उसी में खुश न मिल जाये तो भी खुश। तभी तो मालिक ने उन्हें इतना नवाजा है। अभी हम यादों के दायरे में गोते लगा ही रहे थे कि एक सूटेड-बूटेड महाशय ने जोर से हल्लो कहकर चल रहे संवाद में अवरोध उत्पन्न कर दिया। हमने आवाज की दिशा में देखा तो बस देखते ही रह गये। लखनऊ विश्वविद्यालय में पीजी क्लास के सहपाठी विनोद पाण्डेय सामने से बडे-बडे कदम भरते हुए चले आ रहे थे। एक और गले मिलने का सुख हमें मिला। यह मुलाकात भी एक संयोग ही थी। विनोद वास्तव में एक म्यूजिक कम्पनी के चेयरमैन हैं। वे अपने मैनेजर के साथ हम शुक्रवार को हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगार पर माथा टेकने आते हैं। इस बार वे माथा टेककर वापिस जा ही रहे थे कि खुर्शीद मियां की आवाज ने उनके पैरों में बेडियां डाल दी। वे खुर्शीद मियां को ही ढूंढ रहे थे अपने नये एलबल में उन्हें एक दिलकश आवाज के लिए। तभी हम उन्हें नजर आ गये। हमारे पास आने के बाद जब उन्होंने पलट कर देखा तो सामने उनकी पसन्दीदा आवाज खडी थी। उन्होंने अपने एलबम में काम करने की पेशकश की, खुर्शीद मियां ने कुबूल की। हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्लाहो अलैहे बसल्लम का गुलाम होने वाला किसी और का गुलाम हो ही नहीं सकता। आज जरूरत है इबादत और पूजा के सही मायने समझने की तभी देश-दुनिया के साथ-साथ इंसानियत को नयी ऊंचाइयों तक पहुचाया जा सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले हफ्ते एक नयी शक्सियत के साथ फिर मुलाकात होगी, तब तक के लिए खुदा हाफिज।

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