महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नेता साबित करते दिख रहे हैं कि ‘राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता.’
शिव सेना और बीजेपी का गठबंधन टूट गया है और उसने हिंदुत्व के मुद्दे पर भी अपना रुख़ नरम कर लिया है.
इस बदले माहौल में एमएनएस नई राजनीतिक संभावनाएं तलाशने की कोशिश कर रही है.
अटकलें लगाई जा रही हैं कि इन संभावनाओं के लिए एमएनएस हिंदुत्व का रुख़ कर सकती है और राज्य में बीजेपी की नई सहयोगी बन सकती है.
कहा जा रहा है कि 23 जनवरी को होने वाली रैली में राज ठाकरे अपनी पार्टी की नई राजनीतिक स्थिति के बारे में बता सकते हैं.
बाला नंदगांवकर और नितिन सरदेसाई जैसे एमएनएस नेताओं ने पिछले दिनों मीडिया में बात करते हुए ऐसे संकेत भी दिए हैं.
उन्होंने कहा है कि गठन के 12 साल बाद ‘एमएनएस में कुछ आधारभूत परिवर्तन करने की ज़रूरत है’ और ‘राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता.’
बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटने के बाद एमएनएस ने नासिक कॉर्पोरेशन के मेयर पद के चुनाव के लिए बीजेपी को वोट किया.
कुछ दिन पहले बीजेपी नेता आशीष शेलार राज ठाकरे से मिले भी थे.
इन सभी बयानों और जानकारियों के आधार पर नए राजनीति समीकरणों की अटकलें लगाई जा रही हैं.
बीबीसी से बातचीत में एमएनएस नेता संदीप देशपांडे ने कहा, “नंदगांवकर ने सही कहा है. राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन या स्थायी दोस्त नहीं होता.
हमने ये महाराष्ट्र में भी देखा है और राष्ट्रीय राजनीति में भी. कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी साथ आई. हमने महाराष्ट्र में शिवसेना और कांग्रेस को साथ आते देखा. हमारी पार्टी जो भी फ़ैसला लेगी, राज साहेब उसके बारे में सबको बताएंगे.”
इससे ये बात तो साफ़ हो गई है कि एमएनएस ने अपने सारे विकल्प खुले रखे हैं और वो बीजेपी के साथ गठबंधन करने की संभावनाओं से इनकार नहीं कर रही है.
बीजेपी के साथ जाने के साथ ही, एमएनएस हिंदुत्व की ओर रुख़ कर सकती है.
ये भी कहा जा रहा है कि इस बदलाव की कड़ी में एमएनएस के झंडे में भी बदलाव किए जा सकते हैं और नीले, भगवा और हरे रंग की जगह झंडे को पूरा भगवा किया जा सकता है.
हालांकि कोई भी एमएनएस नेता इसके बारे में आधिकारिक रूप से नहीं बता रहा है. लेकिन एमएनएस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से तीन रंगों वाला झंडा हटा दिया गया है.
वहां अब सिर्फ़ पार्टी का चुनाव चिह्न – ‘रेलवे इंजन’ ही दिख रहा है.
कहा जा रहा है कि पार्टी के नए झंडे में भगवा रंग के साथ ही शिवाजी महाराज की राजमुद्रा भी होगी.
शिवसेना महा विकास अघाड़ी में शामिल हो गई है, ऐसे में एमएनएस बीजेपी और हिंदुत्व के ज़रिए नई राजनीतिक संभावनाओं को तलाशने की कोशिश कर रही है.
कहा जा रहा है कि एमएनएस राजनीतिक रुख़ बदलकर ख़ुद को शिवसेना के विकल्प के तौर पर पेश करेगी.
ये संभावना सच्चाई में बदलती हुई दिख रही है. संभावना दो मुद्दों पर आधारित है. एक शिव सेना का हिंदुत्व.
कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिलाने के बाद शिवसेना को आक्रामक हिंदुत्व से किनारा करना होगा.
उन्होंने कई मसलों पर अपने रुख़ को नरम किया है. एमएनएस उन मतदाताओं और कार्यकर्ताओं को आकर्षित करने की कोशिश करेगी, जो हिंदुत्व की वजह से शिवसेना के साथ थे, लेकिन अब उसके बदले रुख़ की वजह से ख़ुश नहीं हैं.
राज ठाकरे हमेशा कहते रहे हैं कि उन्होंने हिंदुत्व को छोड़ा नहीं है और उन्होंने ये भी साफ़ किया था कि एमएनएस के झंडे में भगवा रंग हिंदुत्व को दर्शाता है.
अब लग रहा है कि एमएनएस हिंदुत्व के मुद्दे पर आक्रामकता दिखाएगी और इस मामले में शिवसेना से भी आगे निकल जाएगी.
दूसरा, एमएनएस बीजेपी की सहयोगी बन सकती है क्योंकि शिवसेना के जाने से ये जगह ख़ाली हो गई है.
बीजेपी को भी शिवसेना का मुक़ाबला करने के लिए एक दोस्त की ज़रूरत है. दूसरी ओर, एमएनएस को लागतार नाकामी मिल रही है, इसलिए वो एक दोस्त की तलाश भी कर रही हैं.
लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव प्रचार किया, जिससे कांग्रेस और एनसीपी को फ़ायदा मिला.
समझा जा रहा था कि विधानसभा चुनाव में वो कांग्रेस और एनसीपी के गठबंधन में शामिल हो जाएगी. एमएनएस उस गठबंधन के साथ नहीं गई, लेकिन कुछ विधानसभा क्षेत्रों में उन्होंने एक दूसरे का समर्थन किया.
राज ठाकरे की शरद पवार से बढ़ती नज़दीकी ने भी राजनीतिक पंडितों को सोचने का मौक़ा दिया था. एक वक़्त उनकी बीजेपी नेताओं से भी नज़दीकी बढ़ी थी, जिसने राजनीतिक चर्चा शुरू की. लेकिन उस वक्त शिव सेना बीजेपी के साथ थी.
अब, एमएनएस के पास एक राजनीतिक दोस्त बनाने का मौक़ा है. बीजेपी के पास 105 विधायक हैं और ये पार्टी केंद्र में भी है. ऐसे में अगर एमएनएस बीजेपी को अपना सहयोगी बनाती है तो उसे संगठन के तौर पर भी मज़बूती मिलेगी.
लेकिन हाल के दिनों में, ख़ासकर लोकसभा चुनाव के दौरान, राज ठाकरे, मोदी और बीजेपी के ख़िलाफ़ खुलकर बोले थे. राज्यभर में उनकी रैलियों और भाषणों से बीजेपी की मुश्किलें बढ़ीं.
ये कहा जा रहा था कि बीजेपी के विरोध की वजह से उन्हें कोहिनूर मामले में प्रवर्तन निदेशालय का नोटिस भेजा गया. तो क्या बीजेपी और एमएनएस के संभावित गठबंधन के बीच ये बाते अड़ंगा डालेंगी?
एमएनएस नेता इससे इत्तेफाक नहीं रखते. उनके मुताबिक़, स्थानीय स्तर के फैसले अलग मुद्दों पर लिए जाते हैं.
संदीप देशपांडे कहते हैं, “लोकसभा चुनाव के दौरान की गई आलोचना बीजेपी के ख़िलाफ़ नहीं थी बल्कि मोदी के ख़िलाफ़ थी. राज साहेब ने अपने भाषणों में कहा था कि भारत को ‘मोदीमुक्त’ किया जाना चाहिए. ये एक व्यक्ति के बारे में था. लेकिन हमने पार्टी के बारे में कुछ नहीं कहा था. स्थानीय स्तर पर मुद्दे अलग होते हैं, समीकरण अलग होते हैं. स्थानीय स्तर के फ़ैसले इस नज़रिए से लिए जाते हैं. अगर गठबंधन जैसा बड़ा फैसला लेना होगा तो राज साहेब ख़ुद इसका ऐलान करेंगे.”
अगर राज ठाकरे ने 23 जनवरी की रैली में नया रुख़ लिया तो ये एमएनएस की राजनीति पर किस तरह असल डालेगा?
पत्रकार धवल कुलकर्णी ने राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे की राजनीति पर एक किताब लिखी है.
वो कहते हैं कि हिंदुत्व की राजनीति में कई सीमाएं होती हैं और शिवसेना पर भी इसने काफ़ी असर डाला था.
धवल कुलकर्णी कहते हैं, “हिंदुत्व सिर्फ़ कुछ वक़्त के लिए फ़ायदा करता है. लेकिन ये पार्टी की मज़बूत क्षेत्रीय पार्टी बनने की संभावनाओं को भी सीमित करता है. शिवसेना ने हिंदुत्व का रुख़ लिया था और वो डीएमके की तरह एक मज़बूत क्षेत्रीय पार्टी नहीं बन सकी. उनके हाथ से मौक़ा चला गया. राज ठाकरे ने स्थानीय भाषा के मुद्दे पर अपनी पार्टी को स्थापित किया है. लेकिन अब वो भी शिव सेना के रास्ते पर जाते दिख रहे हैं.”
वो कहते हैं, “ऐसा लग रहा है कि इतिहास ख़ुद को दोहरा रहा है. शिवसेना ने अब तक कई पार्टियों को समर्थन दिया और कई पार्टियों की सहयोगी रही. राज भी पहले मोदी को समर्थन दे चुके हैं. फिर उन्होंने मोदी के ख़िलाफ़ अभियान चलाया. मुझे लगता है कि अगर वो बीजेपी के साथ जाने का फ़ेसला करते हैं तो, इससे उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होंगे.”
वरिष्ठ पत्रकार मृणालिनी नानिवडेकर के मुताबिक एमएनएस के मतदाताओं के लिए पार्टी के इस तेज़ी से बदले रुख़ को पचाना मुश्किल होगा.
उनके मुताबिक़, “हाल के विधानसभा चुनाव में एमएनएस को मिले अप्रत्याशित वोट-शेयर को देखते हुए लोगों को लग रहा था कि राज ठाकरे को महाराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में जाना चाहिए और पार्टी को मज़बूत करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि एक विकल्प तैयार किया जा सके. लेकिन वो किसी दूसरी पार्टी के साथ जाते हैं तो ये कुछ वक़्त के लिए उन्हें फ़ायदा मिल सकता है, लेकिन इसकी भी सीमा है.”
नानिवडेकर कहती हैं, “अगर हम बीजेपी के नज़रिए से देखें तो वो फिर से सत्ता में आने की कोशिश कर रही है. बीजेपी का अनुमान है कि जिन इलाक़ों में वोटरों ने बीजेपी की बजाय शिवसेना के ख़िलाफ़ वोट किया, वो एमएनएस की तरफ़ जा सकते हैं. ये बीजेपी की रणनीति है और इसलिए वो एमएनएस को साथ लेना चाहती है. राज ठाकरे को इस बारे में भी सोचना चाहिए.”