मोहर्रम पर कोरिया जिले में भी ताजिया का जुलूस निकाला गया।
कोरिया से अतुल शुक्ला की रिपोर्ट।
चिरमिरी। यजीद की सेना के विरुद्ध जंग लड़ते हुए हजरत अली का संपूर्ण परिवार मौत के घाट उतार दिया गया था और मुहर्रम के दसवें दिन इमाम हुसैन भी इस युद्ध में शहीद हो गए थे। इस दिन को इमाम हुसैन को याद करते हुए चिरमिरी हल्दी वाड़ी में ताजिया का जुलूस निकाला गया।
कोविड-19 को ध्यान में रखते हुए और हमारे सभी मुस्लिम संप्रदाय के मित्र भाइयों ने इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद किया।मुहर्रम के दसवें दिन ( इस बार 30 अगस्त, रविवार) ही मुस्लिम संप्रदाय द्वारा ताजिए निकाले जाते हैं। लकड़ी, बांस व रंग-बिरंगे कागज से सुसज्जित ये ताजिए हजरत इमाम हुसैन के मकबरे के प्रतीक माने जाते हैं। इसी जुलूस में इमाम हुसैन के सैन्य बल के प्रतीक स्वरूप अनेक शस्त्रों के साथ युद्ध की कलाबाजियां दिखाते हुए लोग चलते हैं।
मुहर्रम के जुलूस में लोग इमाम हुसैन के प्रति अपनी संवेदना दर्शाने के लिए बाजों पर शोक-धुन बजाते हैं और शोक गीत मर्सिया गाते हैं। मुस्लिम संप्रदाय के लोग शोकाकुल होकर हज़रत इमाम हुसैन को याद करते हैं। इस प्रकार इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है।
सिर्फ 8 दिन में ही उजड़ गई थी कर्बला की बस्ती:
कर्बला का नाम सुनते ही मन खुद-ब-खुद कुर्बानी के ज़ज्बे से भर जाता है। जब से दुनिया का वजूद कायम हुआ है, तब से लेकर अब तक न जानें कितनी बस्तियां बनीं और उजड़ गईं, लेकिन कर्बला की बस्ती के बारे में ऐसा कहते हैं कि यह बस्ती सिर्फ 8 दिनों में ही तबाह कर दी गई। दो मुहर्रम 61 हिजरी में कर्बला में इमाम हुसैन के काफिले को जब यजीदी फौज ने घेर लिया तो हुसैन साहब ने अपने साथियों से यहीं खेमे लगाने को कहा और इस तरह कर्बला की यह बस्ती बसी।
इस बस्ती में इमाम हुसैन के साथ उनका पूरा परिवार और चाहने वाले थे। बस्ती के पास बहने वाली फरात नदी के पानी पर भी यजीदी फौज ने पहरा लगा दिया। 7 मुहर्रम को बस्ती में जितना पानी था, सब खत्म हो गया। 9 मुहर्रम को यजीदी कमांडर इब्न साद ने अपनी फौज को हुक्म दिया कि दुश्मनों पर हमला करने के लिए तैयार हो जाए। उसी रात इमाम हुसैन ने अपने साथियों को इकट्ठा किया। तीन दिन का यह भूखा, प्यासा कुनबा रात भर इबादत करता रहा।
इसी रात 9 मुहर्रम की रात को इस्लाम में शबे आशूरा के नाम से जाना जाता है। दस मुहर्रम की सुबह इमाम हुसैन ने अपने साथियों के साथ नमाज़-ए-फ़र्ज अदा किया। इमाम हुसैन की तरफ से सिर्फ 72 ऐसे लोग थे, जो मुक़ाबले में जा सकते थे। यजीद की फौज और इमाम हुसैन के साथियों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ नेकी की राह पर चलते हुए शहीद हो गए और इस तरह कर्बला की यह बस्ती 10 मुहर्रम को उजड़ गई।
जानिए, कर्बला का पहला शहीद कौन था
इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम इमाम हुसैन की याद दिलाता है। इमाम हुसैन ने खुदा की राह पर चलते हुए बुराई के खिलाफ कर्बला की लड़ाई लड़ी थी, जिसमें इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ शहीद हुए थे। इस लड़ाई में सबसे पहला शहीद था इमाम हुसैन का छ: माह का बेटा हज़रत अली असगर।
जब यजीदी फौज ने कर्बला की बस्ती के पास बहने वाली फरात नदी के पानी पर पहरा लगा दिया तो इमाम हुसैन के साथियों और परिवार का पानी के बिना बुरा हाल हो गया, लेकिन वे नेकी की राह से नहीं हटे। इमाम हुसैन के 6 माह के बेटे अली असग़र का जब प्यास से बुरा हाल हो गया, तब अली असग़र की मां सय्यदा रबाब ने इमाम से कहा कि इसकी तो किसी से कोई दुश्मनी नहीं है, शायद इसे पानी मिल जाए। जब इमाम हुसैन बच्चे को लेकर निकले और यजीदी फौज से कहा कि कम से कम इसे तो पानी पिला दो।
इसके जवाब में यजीद के फौजी हुरमला ने इस 6 माह के बच्चे के गले का निशाना लगा कर ऐसा तीर मारा कि हज़रत अली असग़र के हलक को चीरता हुआ इमाम हुसैन के बाज़ू में जा लगा। बच्चे ने बाप के हाथ पर तड़प कर अपनी जान दे दी। इमाम हुसैन के काफिले का यह सबसे नन्हा और पहला शहीद था।