मप्र विस उपचुनाव: मालवा में भाजपा ने फिर लहराया परचम।
शिवराज सिंह चौहान की रंग लायी कड़ी मेहनत।
कैलाश विजयवर्गीय बने बीजेपी के कर्णधार।
विजयवर्गीय ने कराई मालवा में बीजेपी की वापिसी।
विजया पाठक, एडिटर, जगत विजन।
ऐसा माना जाता है कि मध्यप्रदेश में सत्ता का रास्ता मालवा-निमाड़ अंचल से ही खुलता है। ऐसा पिछले विधानसभा चुनावों में साबित भी होता आया है। इसका कारण भी है। छह अंचलों में विभाजित प्रदेश में सबसे ज़्यादा 66 सीटें इसी अंचल से आती हैं। अब मालवा-निमाड़ के भरोसे भाजपा 2023 में वापसी की तैयारी कर रही है। राज्य के जिन 28 विस क्षेत्रों में उपचुनाव हुए हैं, उनमें सात विस क्षेत्र निमाड़-मालवा से हैं। आगर मालवा, हाटपिपल्या, बदनावर, सांवेर, सुवासरा, मांधाता और नेपानगर सीटों पर हुए उपचुनाव बीजेपी के लिए काफी अहम थे। इन विधानसभा क्षेत्रों का प्रभारी बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को बनाया गया था। विजयवर्गीय ने भी क्षेत्र में अपनी पकड़ और अनुभव से सभी सीटों पर बेहतर प्रबंधन से बीजेपी को सफलता दिलायी है। अपने सबसे भरोसेमंद साथियों को अलग-अलग सीटों पर प्रभारी बनाया। जिसका ही परिणाम है कि पूरे चुनावी समय में बीजेपी के सभी कार्यकर्ता एकजुटता से अपने कार्य में संलग्न रहे। मतलब साफ है कि मालवा-निमाड़ अंचल ने इस बार भी अपना असर दिखाया है। वहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इन उपचुनाव में बहुत मेहनत की थी। सभी सीटों पर उन्होंने लगभग 3-3 बार सभाएं, रैलियों की थी। अपने कार्यकर्ताओं को बिखरने नहीं दिया। इसलिए सभी एकजुटता के साथ जुटे रहे। बेहतर प्रबंधन के कारण शुरू से ही बीजेपी कांग्रेस पर भारी रही। इन चुनाव की जीत ने साबित किया कि शिवराज आज भी प्रदेश की जनता के मन पर राज करते हैं।
भाजपा ने पिछले चुनावों की अपेक्षा 2018 में यहां 27 सीटों का नुकसान उठाया था तो कांग्रेस ने 26 सीटें पायी थी। भारतीय जनता पार्टी अब मालवांचल के सहारे ही 2023 के विधानसभा चुनाव में वापसी की तैयारी कर रही है। पार्टी का पहला लक्ष्य नगरीय निकाय चुनाव में सफलता पाना है। दरअसल, मालवा-निमाड़ में हुए नुकसान के कारण ही 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता से वंचित हुई थी। मालवांचल में 66 सीटों में से भाजपा को मात्र 27 सीटें मिली थी। इस नुकसान की कुछ हद तक भरपाई भाजपा ने 28 विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनाव से कर ली। मालवा-निमाड़ अंचल में पार्टी सात में से छह सीट पर विजयी रही। इंदौर संभाग में 37 विधानसभा सीटों में से भाजपा के पास पहले नौ सीटें थीं, जो बढ़कर अब 12 हो गई हैं। वहीं, उज्जैन संभाग में 29 में से 18 सीटें भाजपा को मिली थीं, जो अब 21 हो गई हैं। भाजपा ने उपचुनाव में इंदौर में वार रूम बनाया और आक्रामक लड़ाई लड़ी, वहीं कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत ग्वालियर-चंबल इलाके में झोंक दी, जिसका खामियाजा उसे उठाना पड़ा।
29 सीट के नुकसान के कारण गई थी सरकार:
वर्ष 2003 से लेकर 2013 तक के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जब-जब मप्र में सरकार बनाई तब मालवा-निमाड़ के रास्ते ही उसे सफलता मिली थी। 2018 में भाजपा को इस अंचल से निराशा हाथ लगी थी क्योंकि उसे 29 सीटों पर भारी नुकसान हुआ था। यही वजह है कि भाजपा सत्ता से बाहर हो गई थी। इनमें से अधिकांश पर कांग्रेस को बढ़त मिली थी। अब उपचुनाव में भाजपा को मालवांचल से सफलता मिली। पार्टी ने अपनी एक सीट आगर तो खो दी लेकिन बाकी छह सीटें कांग्रेस से छीन ली।
विंध्य और ग्वालियर में भाजपा पीछे:
प्रदेश में भाजपा सरकार में तो आ गई लेकिन सत्ता समीकरण के लिहाज से अभी भी ग्वालियर-चंबल और विंध्य क्षेत्र में पार्टी की स्थिति कमजोर है। उपचुनाव में भी ग्वालियर-चंबल अंचल में पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। इस उपचुनाव में भी सबसे महत्वपूर्ण डबरा सीट से पूर्व मंत्री इमरती देवी चुनाव हार गई। इस सीट के चुनाव प्रभारी मंत्री नरोत्तम मिश्रा थे। इमरती देवी का चुनाव हारना सिंधिया और नरोत्तम मिश्रा के लिए बुरा संकेत है। क्योंकि डबरा सीट महत्वपूर्ण सीट मानी जा रही थी। पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बाद भी उपचुनाव में तीन मंत्री चुनाव हार गए। 16 सीटों में से भाजपा को सर्वाधिक नौ सीटें तो मिली लेकिन कांग्रेस भी सात सीटें जीतने में सफल रही।
मालवा-निमाड़ जनसंघ के जमाने से भाजपा का गढ़ रहा है। कांग्रेस ने इस क्षेत्र की उपेक्षा की तो भाजपा ने यहां विकास के नए आयाम रचे। इसलिए भाजपा के साथ यह क्षेत्र था, है और आगे भी रहेगा। भाजपा पूरे मप्र का समन्वित विकास करती है। यही वजह है कि उपचुनाव में प्रचंड सफलता मिली। पिछले चुनावों में यहां की 66 में से 55 सीटें भाजपा ने जीती थीं, कांग्रेस इकाई अंक में 9 पर सिमट गई थी और निर्दलीय 2 सीट जीते थे। इस बार भाजपा को 27, कांग्रेस को 35 और निर्दलियों को 3 सीटें मिली हैं। भाजपा भारी नुकसान में रही है। यहां यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि यही वह क्षेत्र है जहां बीते वर्ष किसान आंदोलन भड़का था और मंदसौर गोलीकांड में किसानों ने अपनी जान गंवाई थी। एट्रोसिटी एक्ट में केंद्र सरकार के संशोधन के बाद हुआ सवर्ण आंदोलन भी यहीं भड़का था। उज्जैन में सवर्ण संगठनों ने सड़कों पर लाखों की भीड़ जुटाई थी। कहीं न कहीं ये दोनों मुद्दे भाजपा पर भारी पड़े। उज्जैन पर उसकी पकड़ ढीली हो गई। यहां 7 सीटें हैं। पिछली बार सभी भाजपा ने जीती थीं लेकिन इस बार उसे केवल 3 सीटों पर जीत मिली और 4 गंवा दीं। हालांकि, किसान आंदोलन जिस मंदसौर, मल्हारगढ़ और हाटपिपल्या में भड़का था, इन तीन में से दो सीटें भाजपा ने ही जीती हैं लेकिन आसपास के खेती-किसानी वाले क्षेत्रों में वह पिछड़ गई है। जहां कांग्रेस की किसान क़र्ज़माफ़ी की घोषणा ने भी आग में घी का काम किया था।