भविष्य की आहट / डा.रवीन्द्र अरजरिया।
युधिष्ठिर बनकर हल करने होंगे यक्षप्रश्न।
चुनावी दुंदुभी बजने की आहट से बदलते परिदृश्य।
देश की सरकारें हमेशा से ही दलगत राजनीति को सामने रखकर कार्य योजना बनाती आईं हैं। समाज हित के नाम पर जातिगत आंकडों से लेकर वर्ग विभाजन तक को सामने रखतीं हैं। यह सारी स्थितियां चुनावी काल के नजदीक आते ही चरम पर पहुंचने लगतीं हैं। शब्दों की बाजीगरी, सरकारी दस्तावेजों और विपक्ष की खामियों पर केन्द्रित कार्य योजनाओं को अमली जामा पहनाने की शुरूआत हो जाती है। महकमों में तबादलों का दौर चल निकलता है। मंत्री मण्डल का विस्तार आकार लेने लगता है। जातिगत समीकरणों को बैठाने हेतु तुष्टीकरण की चालें देखने को मिलने लगतीं हैं। जिलास्तर की दलगत इकाइयों के इशारों पर अधिकारियों-कर्मचारियों को हटाया-पहुंचाया जाता है। विशेष निर्देशों के साथ पदभार सम्हालने वाले अधिकारी, कर्माचारी अपने लक्ष्य भेदन हेतु सक्रिय हो जाते हैं। देश में सबसे ज्यादा महात्व रखने वाले राज्य में चुनावी दुंदुभी बजने की आहट से परिदृश्य बदलने लगे है। सरकारें सचेत हो गईं हैं। राजनैतिक दलों के संगठनात्मक स्वरूपों में परिवर्तन होने लगा है। असामाजिक तत्वों को भी पर्दे से पीछे से सक्रिय करने की पुरानी परम्परा का निवर्हन किया जा रहा है। आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो चुका है। राजनैतिक दलों से लेकर सरकारी महकमों तक के क्रियाकलापों में चुनावी आहट स्पष्ट सुनाई देने लगी है। सत्ता पर कब्जा होने का लक्ष्य साधने के लिए बढने वाली वर्तमान सक्रियता को किसी भी हालात में राष्ट्र हितकारी नहीं कहा जा सकता। देश हित, समाज हित और नागरिक हित जैसे उद्देश्य कहीं खो से गये हैं। दलगत हितों के पर्दे के पीछे से व्यक्तिगत हितों को साधने का क्रम चल निकला है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर विचार मंथन की प्रक्रिया चरम की ओर है। एक ओर सरकारें कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर ईमानदार करदाताओं की मेहनत की कमाई को हरामखोरों पर लुटाने में जुटी वहीं दूसरी ओर विपक्ष की चीखें अर्थहीन होती जा रहीं हैं। वास्तविकता को उजागर करने वाले समाचारों पर तत्काल कार्यवाही होने का जमाना गुजर चुका है। वह एक युग था जब सिंगल कालम खबर छपने पर ही शासन-प्रशासन तत्काल सक्रिय हो जाता था, जांच करवाई जाती थी और दोषी को दण्डित किया जाता था। आज पूरे पेज रंगने के बाद भी उत्तरदायी तंत्र के कान पर जूं तक नहीं रैंगता। हां इतना अवश्य होता है कि जिसके विरुध्द खबर छपी होती है, वहां से संरक्षण शुल्क की एक बडी किस्त तत्काल वरिष्ठतम उत्तरदायी के पास पहुंच जाती है। ज्यादा हायतौबा हुई तो किसी संविदाकर्मी या आउटसोसिंग पर्सन को उत्तदायी ठहराकर बलि का बकरा बना दिया जाता है। स्थाई कर्मचारी, स्थाई अधिकारी तो आपस में भाई-भाई का नारा जिंदाबाद किया रहते हैं। रही बात जनप्रतिनिधियों की, तो यदि वह सत्ताधारी दल का है तो उसे भी एक हिस्सा पहुंच जाता है। विपक्षी दलों के जनप्रतिनिधि तो वैसे ही अप्रसांगिक हो चुके हैं। उन्हें तो लिखित अधिकारों में से केवल कुछ एक का ही उपयोग करने की छूट होती है। बाकी पर नियमों का मकडजाल बेहद तेजी से कसा रहता है। उत्तर प्रदेश के चुनावी समर हेतु भाजपा की महात्वपूर्ण मानी जाने वाली चित्रकूट बैठक में जिस तरह से जातिगत मुद्दों को आधार बनाने की नीति बनाई गई, वह सुखद कदापि नहीं कही जा सकती है। पहले सम्प्रदायवाद, फिर जातिवाद और अप्रत्यक्ष में स्वार्थवाद का त्रिकोणीय फार्मूला इस बार निवार्चन काल में विवेक के आइने पर देखा जा सकेगा। यूं तो इस त्रिकोणीय फार्मूले को सभी राजनैतिक दल अपने अप्रत्यक्ष ऐजेन्डे में हमेशा से ही शामिल किये रहते थे परन्तु इस बार तो यह फार्मूला ही फार्मूला दिखाई देगा। वहीं दूसरी ओर इसी परम्परा का निर्वाहन करते हुए भाजपा के ठीक विपरीत सपा की रणनीति तैयार हो चुकी है। सैफई की घरेलू पंचायत में अनुभवों की आंच में रणनीति की खिचडी पकाई गई है। अल्पसंख्यकों के ध्रुविकरण से लेकर एक जाति विशेष को समेटना का क्रम तत्काल प्रारम्भ करने पर जोर दिया गया। भाजपा से उपेक्षित हुए ब्रह्मा जी के गणों को साथ लाने हेतु प्रयास तेज कर दिये गये हैं। इस बार बसपा की सक्रियता किसी गुप्त अभियान के तहत चल रहा है। घर-घर व्दारे-व्दारे की नीति चुपचाप चलाई जा रही है। एक वाहन में चन्द खास नेताओं के दौरे चल रहे हैं। कांग्रेस को एक तरह से बामपंथियों ने अधिग्रहीत कर लिया है। प्रदेश का पुरानी कांग्रेसी स्वयं को हताशा के दावानल से मुक्त कराने के लिए प्रयासरत है। दिल्ली दरवार से लेकर लखनऊ दरवार तक लाल सलाम का बोलबाला है। लखनऊ विश्वविद्यालय से निकले कद्दावर नेताओं के स्थान पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर से आये लोगों को बैठाया जा रहा है। उत्तर प्रदेश की राजनैतिक गर्मी से देश की राजधानी का तापमान निरंतर बढ रहा है। दलगत व्यवस्था के आधार पर खडा होने वाला लोकतंत्र निरंतर खोखला होता जा रहा है। संविधान का लचीलापन शक्तिशालियों के लिए वरदान बन चुका है। शक्ति का अर्थ लोकप्रियता से हटकर भयप्रियता में कब का बदल चुका है। आतंक का तांडव, तांडव का बखान और बखान से दहशत का माहौल बनाने वालों की संख्या में निरंतर बढोत्तरी होती जा रही है। जेल की सलाखों के पीछे से जारी होने वाले फरमानों पर चुनाव जीतने का क्रम प्रारम्भ हुए तो लम्बा समय गुजर चुका है। तब चेहरा पहचान हुआ करता था। आज तो नाम ही काफी है, का जमाना आ चुका है। असामाजिक तत्वों के सामने भय से नतमस्तक होने वालों की संख्या में खासा इजाफा हो रहा है। वहीं इच्छाओं की पट्टी बांधकर व्यापार, समाजसेवा, शिक्षा, खेल, फिल्म, साहित्य जैसी अनेक विधाओं के स्थापित हस्ताक्षरों ने अपनी प्रतिभा की दम पर प्राप्त की लोकप्रियता को राजनैतिक दलों के घरों पर गिरवी रख दी है। सिध्दान्तों के मार्ग पर आगे बढने वाले दलों ने दिशा बदल दी है। दलबदल कर स्वार्थ के नाते विपरीत विचारधारा में रचे-बसे लोगों को गले लगाना, अब आम बात हो गई है। दलों ने सिध्दान्तों के स्थान पर समझौतों को आदर्श मापदण्ड बना लिया है। ऐसे में टिकिट पाने की जुगाड में अति महात्वाकांक्षी लोगों की भीड उतावली हो रही है। इस उतावली होने वाली भीड और समझौतावादी दलों से क्या वास्तव में राष्ट्रहित हो सकेगा, नागरिकों को समान सुविधायें मिल सकेंगी, पक्षपात विहीन व्यवस्था कायम हो सकेगी, इस तरह के अनेक सवाल अब यक्ष प्रश्न बन चुके हैं, जिन्हें हल करने के लिए अब आम नागरिक को युधष्ठिर बनकर आगे आना पडेगा तभी राष्ट्र का कल्याण संभव होगा अन्यथा प्रश्नों को अनदेखा करने का परिणाम भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की तरह ही होगा और तब हमारे पास हाथ मलने के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई दस्तक के साथ फिर मुलाकात होगी।