राष्ट्रद्रोहियों को सिखाना होगा कड़ा सबक।

भविष्य की आहट / डा.रवीन्द्र अरजरिया

राष्ट्रद्रोहियों को सिखाना होगा कड़ा सबक।

देश की धरती पर शत्रु का परचम फराने वालों के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं। भितरघात करने वाले अब खुलकर सामने आ रहे हैं। कश्मीर में पहुंचे पाकिस्तान के घुस पैठियों के अलावा अब अन्य प्रदेशों में भी जेहाद के नाम पर खुला विद्रोह करने वालों ने योजनाबध्द ढंग से काम करना शुरू कर दिया है। पहले केरल में आईएसआईएस के भर्ती कैम्प खोले गये फिर बंगाल में घुसपैठियों को नागरिक बना दिया गया और अब लव जेहाद के साथ-साथ उग्र जेहाद ने भी चीखना शुरू कर दिया है। वाराणसी में खुले आम पाकिस्तान का झंडा लगाकर नारे बुलंद करने वाले ने देश के संविधान को चुनौती दी और अपने मंसूब जाहिर कर दिये। राजा तालाब क्षेत्र में रहने वाले शेखू ने न केवल अपनी दर्जी की दुकान में पाकिस्तान का झंडा सिला बल्कि उसे काफी ऊंचाई पर फहरा कर दुश्मन के जिन्दाबादी नारे भी लगाये। क्षेत्र के लोगों ने एकत्रित होकर विरोध प्रदर्शन किया। पुलिस को सूचित किया। पुलिस आई। शेखू को पूछतांछ के लिए सम्मानजनक ढंग से थाने ले गई। शेखू के पिता ने अपने पुत्र का बचाव करते हुए कहा कि उसका बेटा तो मासूम है और उसने विक्षिप्ति में ऐसा किया है। यह देश के अहिंसाविदयों की मानसिक गुलामी है जो एक अकेले शेखू के विरुध्द पूरे क्षेत्रवासियों को राष्ट्र के अपमान पर प्रदर्शन करके पुलिस को सूचित करना पडा। पुलिस भी उसे पूछतांछ के लिए सम्मानजनक ढंग से थाने ले गई। आश्चर्य होता है अपने देश, देश के संविधान और देश के नागरिकों की सहनशीलता पर, दरियादिली पर और बुजदिली पर भी। अभी किसी ने पाकिस्तान के झंडे को देश में जला दिया होता तो एक खास वर्ग टूट पडता। न प्रदर्शन, न शिकायत और न ही संविधान की चिन्ता। खुद ही न्यायालय, खुद ही न्यायाधीश और खुद ही सजा देने वाले बन जाते है, जिस बाद में भीड का नान दे दिया जाता है। ऐसी अनेक घटनायें देश के विभिन्न भागों में होती रहतीं हैं। कार्यवाही के नाम पर केवल औपचारिकतायें निभाकर समय के साथ सब कुछ शांत कर दिया जाता है। आज तक किसी देशद्रोही को चौराहे पर तो छोडिये जेल के अंदर भी फांसी नहीं दी गई। जबकि अनेक राष्ट्रभक्तों को मौत की नींद सुला दिया गया। इस तरह की दस्तकों के बाद भी जब आम आवाम की नींद नहीं टूटती तो फिर राष्ट्र का खाकर उसी पर गुर्राने वालों की संख्या तो बढेगी ही। जब मियां औबेसी के भाईजान देश से कुछ समय के लिए पुलिस हटाकर शक्ति परीक्षण की बात करके, गैर मुस्लिमों को काटकर फैंक देने की खुले आम धमकियां देकर भी खुले आम घूमते हैं तो फिर शेखू जैसे लोगों को तो शह मिलेगी ही। केरल जैसे जेहादी कैम्पों में भर्तियां होंगी ही। कश्मीर में पाकिस्तान के घुसपैठियों की संख्या बढेगी ही। बंगाल में बंगलादेशियों की आबादी में इजाफा होगा ही। गांव की गलियों से लेकर शहरों के चौराहों तक आज फिर संविधान और संविधान की रक्षा करने वालों की चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है। राष्ट्र का अपमान करने वालों को हमारे देश के जयचन्दों ने कभी मानसिक विक्षिप्त जाम पहना कर बचा लिया तो कभी नाबालिग का तमगा देकर। संविधान की धाराओं को मनोरंजक खेल समझने वाले यह जयचन्द फांसी की सजा के अंतिम क्षणों तक रात में भी न्यायालय को खुलवाने की ताकत रखते हैं। आरोप सिध्द हो गया, फांसी की सजा हो गई, राष्ट्रपति से दया याचिका खारिज हो गई। फिर भी न्यायालय के ताले खोलने पडते हैं, न्यायाधीशों को बैठना पडता है। इसे हमारे संविधान की खूबसूरती बताने वालों की देश में कमी नहीं है। देश भले ही स्वतंत्र हो गया हो परन्तु वास्तविक स्वतंत्रता को मनमानी करने वालों को ही मिली है। अहिंसावादी लोगों में मानसिक गुलामी अभी भी कायम है, विद्रोह के स्वर उनके गले से निकल ही नहीं सकते, अन्याय के खिलाफ हथियार उठाना तो दूर हाथ तक खडा करने का साहस नहीं कर सकते। यदि यही स्थिति रहेगी तो वह दिन दूर नहीं जब हमें पुन: गुलामी के काल का वंदन करने के लिए खडा किया जायेगा। कश्मीर में सैकडों बार पाकिस्तान का झंडा फहराया गया, जिन्दाबाद के नारे लगये गये, सैनिकों पर हाथ उठाये गये, पत्थर मारे गये। सब कुछ हम जागती आंखों से देखते रहे। लव जेहाद के नाम पर अपहरण की गई मासूमों की बुर्के के अंदर से उठती सिसकियां तेज होती चलीं गईं। अरबी शेखों को केरल के रास्ते पहुंचाई जाने वाली देश की मासूम बच्चियों के गुनाहगार आज भी खुलकर ठहाके लगा रहे हैं। यह सब इसलिए हो रहा है कि हमारे देश के संविधान को मानने वाले मौलिकता की जंजीरों में जकडे हैं और न मानने वाले उसी के चाबुकों से अहिंसावादियों को लहुलुहान कर रहे हैं। आज देश का संविधान अपने कायाकल्प की दुहाई दे रहा है। प्रसिध्द कवि हरिओम पवार ने तो देश के संविधान की लाल किले से चीखती आवाजें बहुत पहले ही सुन ली थी, सुना दी थी और निरंतर सुना रहे हैं। मगर उन पक्तियों को कवि सम्मेलन के पंडाल से बाहर कभी चरितार्थ होते नहीं देखा। वाह वाही तो मिली, सराही भी गई मगर कभी व्यवहार में नहीं आई। यही तो है मानसिक गुलामी का वास्तविक अर्थ कि कोई और उठाये आवाज, कोई और लडे, हम तो केवल बंद कमरे में शब्दों की जुगाली ही करते रहेंगे या फिर उस आवाज और लडाई की जानकारियां जुटाने में ही तल्लीन रहेंगे। जब तक संविधान का कायाकल्प नहीं होगा, पुलिस को राष्ट्रद्रोह की राह पर चलने वालों को सबक सिखाने के लिए खद्दरधारियों के फोन से मुक्त नहीं किया जायेगा तब तक शेखू जैसे लोगों की जमात बढती ही रहेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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