भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया

दूरी से दाम कमाने का सूत्र

Formula to earn money from a distance
        सम, विषम और शून्य की परिभाषाओं के मध्य जीवन हिलोरें ले रहा है। अनिश्चितता का वातावरण अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। शासकीय प्रयासों से लेकर व्यक्तिगत प्रयासों तक में निरंतरता बनी हुई है। कोरोना के दावानल को पुरुषार्थ की शक्ति से हराया जा रहा है। ऐसे में भविष्य की आहट को सुनकर उसे संभावनाओं के मध्य पहुंचाना, एक बेहद कठिन संकल्प बनकर उभरा है। इसी संकल्प की पूर्ति हेतु कलम ने शब्दों को आकार देना शुरू कर दिया है। विश्व मंच से लेकर गांव की चौपालों तक पर संवाद चल रहे हैं। समाज के सभी आयामों को स्वरुप परिवर्तित होने लगा है। स्वास्थ पर आक्रमण करने वाले इस वायरस ने लोगों के मस्तिष्क पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है। शरीर के अतिमोह ने सुरक्षा के नाम पर दूरियां बनाना शुरू कर दीं हैं। संबंधों की दुहाई से लेकर कर्तव्यों के पालन ने भी मनमानी व्यवस्थायें बनाई जा रहीं हैं। चिकित्सा जगत के सीधे सम्पर्क में आने वाले वायरस ने सब से पहले उन्हे ही दूरी से दाम कमाने का सूत्र पकडा दिया। यूं तो अनेक ऐसे चर्चित डाक्टरों को हम जानते हैं जिन्होंने प्रसिध्दि पाने के बाद शायद ही किसी मरीज की नब्ज देखी हो, परन्तु अब तो आलन यह है कि डाक्टर साहब अपने चैम्बर से ही वाट्सएप या लाइव चैट के माध्यम से बाहर बरामदे में लगी कुर्सियों पर बैठे मरीजों का इलाज कर रहे हैं। ऐसे डाक्टरों ने अपनों के पैथोलोजी सहित अन्य जांच केन्द्र खुलवा रखे हैं, जिनमें मरीज को तत्काल जांच हेतु भेजा जाता है और फिर वाट्सएप या लाइव चैट से रिपोर्ट देखकर दवाई लिख दी जाती है। हर डाक्टर का एक खास मेडिकल स्टोर होता है जहां एक खास कम्पनी की दवा मिलती है। व्यापारवाद ने इस क्षेत्र को अब पूरी तरह से अपने शिकंजे में ले लिया है।  ऐसे में मरीज को संतुष्टि कैसे मिलेगी और मानसिक संतुष्टि के बिना शारीरिक लाभ भी देर से होगा। यह नई व्यवस्था डाक्टरों ने स्वयं की सुरक्षा के लिए की है परन्तु क्या इसके अलावा कोई और व्यवस्था नहीं हो सकती थी। क्या फुल कवर्ड पीपीई किट के साथ डाक्टर और मास्क जैसे अनेक सुरक्षात्मक उपायों के  साथ मरीज का आमना सामना नहीं हो सकता था। जहां डाक्टर अपने ज्ञान के आधार पर साधारण बीमारियों का इलाज करते। न कि जांचों के आधार पर दवायें लिखते। कालेज का सैध्दान्तिक और प्रयोगात्मक अध्ययन क्या मात्र डिग्री प्राप्त करने का साधन था। अगर ऐसा नहीं है तो दवा कम्पनियों के प्रतिनिधियों के व्दारा सुझाये गये उपायों को ही उपयोग में क्यों लाया जा रहा है। सरकार व्दारा उपलब्ध करायी जाने वाली जैनेटिक दवायें क्यों नहीं लिखा जाती। अनेक तो ऐसे डाक्टर भी है जिन्हें जैनेटिक दवाओं के नाम भी नहीं मालूम है। ऐसे डाक्टरों से बडा टर्नओवर करने वाली चर्चित कम्पनियों की दवायें मुंह पर रटी रहतीं है। सोशल मीडिया पर आज भी मरीजों के कटु अनुभवों और डाक्टरों की मनमानियों के किस्से भरे पडे हैं। अपवाद के रूप में ऐसे डाक्टर भी मौजूद हैं जो रात-दिन मरीजों के लिए समर्पित हैं परन्तु सरकारी डाक्टरों के आवासों पर मरीजों की भीड इस बात की गवाह है कि देश की सरकारी स्वास्थ व्यवस्था के ऊपर एक और तंत्र है जो अपने संगठन की शक्ति दिखाकर सरकारों को लचर नीतियों बनाने और कठोर नीतियों की वास्तविक अनुपानल नहीं होने देता है। आने वाला कल इसी तंत्र के हाथों का खिलौना बन जाये तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

Dr. Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
for cont. –
dr.ravindra.arjariya@gmail.com

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