बारडोली सत्याग्रह की याद दिलाता मौजूदा किसान आंदोलन।
किसानों की नजरों में मोदी सरकार ने खो दिया विश्वास।
आंदोलन की ताकत है अनुशासन और एकता।
सरकार के अहम पर कितना भारी किसान आंदोलन?
विजया पाठक, एडिटर, जगत विजन।
इस समय दिल्ली की बार्डरों पर चल रहा किसान आंदोलन आजादी के पहले हुए बारडोली सत्याग्रह की याद दिलाता है। यह सत्याग्रह भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान वर्ष 1928 में हुआ था। यह सत्याग्रह भी एक प्रमुख किसान आंदोलन था, जिसका नेतृत्व वल्लभ भाई पटेल ने किया था। दरअसल 1928 में प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी थी। इसके बाद वल्लभ भाई पटेल ने इस लगान वृद्धि का जमकर विरोध किया था और वह सत्याग्रह इतिहास में दर्ज हो गया है। इस आंदोलन में भी वहीं जोश है, वहीं जज्बा है और वही उत्साह है। जो निश्चित ही किसी नतीजे पर खत्म होगा। क्योंकि मौजूदा किसान आंदोलन में विश्वास के साथ-साथ किसानों को कषि कानूनों से बनने वाली भविष्य की तस्वीर भी नजर आ रही है, जो एकदम धुंधली और डरावनी है। यहीं कारण है कि हजारों की संख्या में देश का अन्नदाता तमाम मुसीबतों के बीच खुले आसमान में बैठा हुआ है। राजधानी दिल्ली की बॉर्डरों पर देश का किसान बीते तीन महीने से धरने पर बैठा हुआ है। इस बीच केंद्र सरकार के कई नुमाइंदों के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बैठकें भी हुई, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। खास बात यह है कि 10 बार से अधिक बैठकों के बाद भले ही नतीजा कुछ न निकला हो, लेकिन किसानों का हौंसला और उत्साह जस का तस बना हुआ है। बैठकों की विफलताएं भी किसानों का हौंसला बिल्कुल नहीं डगमगा पाई। मैं खुद कल ही किसान आंदोलन से लौटी और मैंने वहां जो किसानों की एकता और अनुशासन का दृश्य देखा। वह अद्भुत है। सड़कों के किनारे ट्रेक्टर्स पर लगे तंबूओं के अंदर बैठे किसान और उनके परिवार के सदस्य एक परिवार के रूप में रह रहे हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा, न कोई अमीर और न ही कोई गरीब, सब एक ही बात को निश्चय कर अपनी मांग पर अडिग हैं कि केंद्र सरकार तीनों किसान कानूनों को रद्द करे। दिल्ली की चारों सिंघु, टिकरी, गाजीपुर और शाहजहांपुर बॉर्डर पर डटे किसानों के हुजूम को देखकर मुझे आजादी का आंदोलनों की याद आती है। आजादी के बाद देश का यह सबसे बड़ा आंदोलन है, जिसमें इतनी बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हैं और अपनी मांग को लेकर अडिग हैं।
आमतौर पर किसी राजनीतिक दल को अगर एक दिन का भी आंदोलन करना होता है तो इसके लिए महीनों की लंबी तैयारी होती है। भारी मात्रा में पैसा, वाहन और सरकारी ताकत का उपयोग किया जाता है। इसके बाद भी राजनीतिक दलों का आंदोलन प्रतीकात्मक ही बनकर रह जाता है। वह इस तरह का प्रभाव नहीं छोड़ पाता जिस तरह किसान आंदोलन ने प्रभाव डाला है। इस आंदोलन में सबने अपने अपने अहम पीछे छोड़कर गजब की एकता दिखाई है। जब मैं यहां पहुंची तो देखा कि शायद ही कोई आंदोलन इस तरह की सुव्यवस्था के साथ कभी हुआ होगा।
सरकार की ओर से बिजली, पानी, नेट जैसी बुनियादी सुविधाओं न देने के बावजूद यह किसान अपने स्तर पर सभी व्यवस्थाएं स्वयं कर रहे हैं। बाजवूद इसके आंदोलन का स्वरूप शांत और व्यवस्थित है। किसी प्रकार का हो-हल्ला नहीं। बार्डरों पर बैठे किसान तन, मन, धन से लगे हैं। बस किसान अपने लक्ष्य की ओर आगे बड़ते जा रहे हैं। हम कह सकते हैं कि यह आंदोलन अनुशासित आंदोलन है। परेशानियों के बीच भी किसानों में वही जोश है। आंदोलन में बड़े, बूढ़े, जवान और महिलाएं शामिल हैं। आंदोलन में मेरी मुलाकात सुभाषिनी अली से भी हुई। वह एक ऐसी महिला हैं, जिसने मां की कोख से ही क्रांतिकारी विचारधारा को अपना लिया था। दलित, शोषित और गरीब महिलाओं के हक के लिए लड़ने वाली सुभाषिनी अली अब वह किसान आंदोलन में शामिल हो गई हैं। सुभाषिनी अली स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मी सहगल की बेटी हैं। स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मी सहगल सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में महिला विंग की कमांडर थी। इसके अलावा मेरी कई किसान नेताओं से चर्चा हुई। जिनमें बालवेन्द्र सिंह हैं, कबर सिंह हैं, लखबीर सिंह हैं। इन सबका एक ही कहना है कि जब तक सरकार हमारी मांगें नहीं मानती है तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा। इसके लिए चाहे हमारी जान ही क्यों न चली जाए। इनका कहना था कि अफवाहें फैलाई जा रही है कि यह प्रायोजित आंदोलन है लेकिन यह आरोप सरासर गलत हैं। बार्डरों पर जितने भी किसान भाई हैं वह सभी अपनी मर्जी से आए हैं। शाहजहांपुर बार्डर पर मेरी मुलाकात किसान सुनील से हुई। इन्होंने बार्डर पर बहुत बड़ा लंगर लगाया है। जिसमें मेवाड़ से भारी मात्रा में दूध आ रहा है। इन्होंने बताया कि यह आंदोलन किसान कानून वापसी तक जारी रहेगा। किसान आंदोलन के प्रमुख चेहरा राकेश टिकैत चारों बार्डरों पर जाते हैं और किसानों के साथ बैठक करते हैं। वह बहुत उत्साह से भरे हुए हैं। उनका भी कहना है कि हम तब तक पीछे नहीं हटेंगे जब तक सरकार तीनों कानूनों को वापिस नहीं करती।
किसान नेताओं का कहना है कि अब हमारा मोदी सरकार से भरोसा उठ गया है। मोदी सरकार पर विश्वास नहीं है। क्योंकि सरकार किसानों की बात ही नहीं सुनना चाहती। यदि सरकार हमारी परेशानियों को समझती और महसूस करती तो आज यह नौबत ही नहीं आती और हमें खुले आसमान में रहना नहीं पड़ता। यह केवल कुछ किसानों की लड़ाई भर नहीं है बल्कि देश के करोड़ों किसान की आजीविका की लड़ाई है।
खैर, अब किसानों के मैनेजमेंट की बात करें तो चारों बॉर्डर पर जो मैनेजमेंट का दृश्य देखने को मिला वो सच में काबिले तारीफ है। आंदोलन की शुरूआत में भोजन वालेंटियर हाथों से पकाते हैं। यहां रोटी बनाने की ढेरों मशीनें आ गई हैं। इन मशीनों की क्षमता हर घंटे कम से कम 6,000 रोटियां तैयार करने की है और ये दिनभर काम कर रही हैं। सैकड़ों वॉलंटियर्स पीठ पर मच्छर मारने की फॉगिंग मशीन लादे एनएच-44 पर 300 से 500 मीटर की दूरी पर मौजूद हैं। व्यक्तिगत साफ-सफाई को देखते हुए हाईवे पर अलग-अलग जगह वाशिंग मशीनें लगी हुई हैं, जहां कुछ ही घंटों में प्रदर्शनकारियों के कपड़े धोकर और प्रेस करके देने के लिए वॉलेंटियर लगे हुए। ट्यूब वाटर पंप का संचालन करने वाली मोबाइल सोलर वैन को मोबाइल फोन चार्ज करने और बैटरी बैंक के रूप में तब्दील कर दिया गया है और वे हाईवे पर जगह-जगह सुबह से शाम तक तैनात हैं। लंगरों, खाना पकाने के स्थानों और दूसरी जगहों पर रात में रोशनी करने के लिए बैटरियों का उपयोग किया जाता है, जिन्हें ट्रैक्टरों से चार्ज किया जाता है। क्वालिटी पेपर पर छपी क्रांतिकारी भगत सिंह, लाल सिंह दिल, कवि सुरजीत पातर जैसे हस्तियों की तस्वीरें बांटी जा रही हैं। लोगों ने टी-शर्ट पर तस्वीरें छपवा रखी हैं। सूर्योदय होते ही 10वें गुरु गोबिंद सिंह की प्रिय- निहंग सेना के सैनिक ऊंचे घोड़ों पर सवार होकर एनएच- 44 पर गश्त करते हैं, तो युवाओं में प्रेरणा की लहर दौड़ जाती है और वे रजाई छोड़ बाहर आ जाते हैं। दोपहर में 3 बजे समूह पारंपरिक हथियारों के साथ सिखों के मार्शल आर्ट ‘गतका’ का प्रदर्शन करता है। कुल मिलाकर किसान आंदोलन में किसानों ने मैनेजमेंट की एक बेहतर मिसाल भी पेश की है। मैंने देखा है कि तमाम बार्डरों पर आज भी किसानों की भीड़ है। टिकरी बार्डर पर 50 किमी तक दोनों तरफ ट्रेक्टर्स की लाइनें लगी हैं और किसान आंदोलन पर बैठे हैं। सिंघु बार्डर पर 40 किमी तक किसान बैठे हैं।
अब सवाल उठता है कि आखिर इस आंदोलन में ऐसा क्या है कि सब अपने अहम को पीछे छोड़ एकजुट हो गए? किसी आंदोलन का नेतृत्व कर चुके किसी नेता के बिना यह आंदोलन इतनी सफलतापूर्वक कैसे चल रहा है? इसका प्रमुख कारण किसानों की एकता और अनुशासन है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी किसानों की भावनाओं की कद्र करना चाहिए, जो अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मुसीबतें झेलने पर मजबूर हैं। यह बात भी सच है कि किसान पीछे हटने वाले नहीं है। उन्होंने मन बना लिया है कि चाहे कुछ भी हो जाए वह पीछे नहीं हटेंगे। हटना सरकार को ही पड़ेगा। भले सरकार के साथ बैठकों में कोई नतीजा नहीं निकला हो, लेकिन किसानों का उत्साह आज भी जस का तस है।