ठाणे भिवंडी। कोरोना को छोड़, भूख से जंग जीतने के लिए मुलुक चल पड़े मजदूर।
ब्यूरो रिपोर्ट मुस्तकीम खान भिवंडी।
पावरलूम उद्योग नगरी भिवंडी में मजदूरों की बस्तियां हो रही हैं खाली।
झुंड के झुंड मजदूरों का तेजी से हो रहा है पलायन।
थाणे भिवंडी। सरकार के कोरे आश्वासन और कारखाना मालिकों की उपेक्षापूर्ण नीतियों के कारण पावरलूम उद्योग नगरी भिवंडी से मजदूरों के झुंड के झुंड कोरोना को छोड़ भूख से जंग जीतने के लिए अपने गांव की तरफ कूच कर रहा है।
जिसके कारण मजदूरों की बस्तियां तेजी से खाली हो रही हैं, अगर मजदूरों का पलायन इसी तरह जारी रहा तो मजदूरों की बस्तियां एक पखवाड़े के बाद वीरान नजर आने लगेंगी।
जानकारों के अनुसार भिवंडी से करीब 30,000 मजदूर ट्रक, टेंपो, बोलेरो पिकअप, जीप , मोटर साइकिल, साइकिल, पैदल सड़क मार्ग, रेल की पटरी पकड़ कर अपने गांव की तरफ रवाना हो चुके हैं।
सरकार और कारखाना मालिकों के कोरे आश्वासनों से धोखा खाकर ठगे गए नाराज हजारों की संख्या में गांव की तरफ पलायन कर रहे मजदूरों से भिवंडी शहर का भविष्य अंधकार में दिखाई पड़ने लगा है।
गौरतलब हो कि भिवंडी देश का सबसे बड़ा पावरलूम उद्योग है इस शहर में देश के 60 प्रतिशत से अधिक कच्चे कपड़े का उत्पादन होता है। जिससे इसे भारत का मानचेस्टर भी कहा जाता है।
भिवंडी शहर हजारों छोटे बड़े कारखानों में लगी करीब 8 लाख पावरलूम मशीनों पर डेढ़ लाख से अधिक मजदूर सीधे रोजगार पाकर अपना जीवनयापन करते हैं।
इसके अतिरिक्त भिवंडी शहर में प्लास्टिक की मोती बनाने के कारखाने बड़ी संख्या में हैं।
इसी तरह भिवंडी शहर से सटे ग्रामीण भाग में बने 25,000 से अधिक वेयर हाउसों में तकरीबन एक लाख से अधिक मजदूर काम करते हैं।
इस तरह भिवंडी शहर और भिवंडी ग्रामीण मिलाकर के भिवंडी में करीब ढाई लाख से अधिक मजदूर काम करते हैं।जो देश के विभिन्न राज्यों से आकर अपनी रोजी रोजगार कर अपने घर परिवार का पेट पालते हैं। इसीलिए तो बंदे को मिनी इंडिया भी कहा जाता है।
पूरे देश में कृषि के बाद पावरलूम उद्योग ऐसा क्षेत्र है जिसमें कम पढ़े लिखे मेहनतकश मजदूरों को सबसे ज्यादा रोजगार मिलता है।
भिवंडी शहर में यह कहावत प्रचलित है कि इस शहर में मेहनत करने वाला अनपढ़ व्यक्ति भी भूखा नहीं सोता है।
वैश्विक महामारी कोरोना रोग के कारण 23 मार्च को अचानक देश में लॉकडाउन घोषित हो गया।
जिसके बाद भिवंडी शहर के कुल कारखाने तथा ग्रामीण भाग के वेयर हाउसों में रोजगार उसी दिन पूरी तरह से बंद हो गया।
जिसके कारण इन कारखानों और वेयर हाउस में काम करने वाले करीब दो से ढाई लाख से अधिक असंगठित मजदूर उसी क्षण से बेरोजगार हो गए।
लॉकडाउन के पहले चरण में 21 दिन तक मजदूर सरकारी आश्वासन तथा कारखाना मालिकों को सरकार द्वारा जारी किए गए फरमान से आशान्वित होकर मदद का इंतजार करते रहे।
मजदूरों के पास जो भी जमा पूंजी थी, उससे मजदूर अपनी तथा अपने परिवारों को खाना खिलाते रहे।
कुछ सामाजिक संस्थाओं ने भी हिम्मत दिखाकर भूखे गरीब मजदूरों को एक समय का भोजन या राशन सामग्री बांटते रहे।
लेकिन सरकारी यंत्रणा की मदद के भरोसे बैठे मजदूरों को केवल कोरा आश्वासन मिला। सरकारी यंत्रणा पूरी तरह से फेल साबित हुई।
इसके पश्चात लॉकडाउन के 19 दिन के दूसरे चरण में मजदूरों का धीरे-धीरे सब्र का बांध अब टूटने लगा था। मजदूरों की जमा पूंजी सब खर्च हो गई।
भूख के मारे बेबस तंग हाल मजदूर को जब 40 दिन के लॉकडाउन के बाद प्रधानमंत्री ने फिर से 17 मई तक लाक डाउन घोषित कर दिया तब मजदूरों के सब्र का बांध टूट गया।
अब मजदूरों के सामने भूखे मरने या किसी भी तरह से अपने मुलुक जाने के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं बचा था।
कई राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने मजदूरों को झूठा आश्वासन देकर उनके गांव तक ट्रेन व बस चलाने का वादा किया।
उसमें भी सरकार ने जो दो-चार ट्रेनें चलाई वह साधन भी ऊंट के मुंह में जीरा जैसा साबित हुआ।
ऊपर से किराया मजदूरों से वसूला गया। यह देखकर अब तो मजदूरों का मन सरकार की तरफ से निराश हो गया और मजदूर जान हथेली पर लेकर सरकारी नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने गांव की तरफ पलायन करने लगे।
जो मजदूर पहले हिम्मत करके चले थे वह 15 दिन में करीब 13 सौ किलोमीटर की यात्रा कर घर पहुंचे उसके बाद कुछ मजदूर यदि कल अब तो मजदूरों का मन सरकार की तरफ से निराश हो गया।
और मजदूर जान हथेली पर लेकर सरकारी नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए गांव की तरफ जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
उन मजदूरों के घर पहुंचने की खबर ने भिवंडी में भूख से छटपटा रहे बेसहारा, बेरोजगार मजदूरों में गांव जाने का हौसला पैदा कर दिया।
लॉकडाउन के तीसरे चरण में मजदूरों ने अपनी जान हथेली पर रखकर गांव की तरफ झुंड के झुंड पलायन करना शुरू कर दिया है।
पैदल गांव जाने वाले मजदूरों में कुछ अकेले तथा कइयों के साथ उनकी पत्नी और एक साल से लेकर सभी उम्र के बच्चे भी शामिल हैं।
इसी तरह मुंबई-नासिक हाईवे पर सर पर सामान की गठरी और कंधे पर बैग टांगे पुरुष और गोद में बच्चे लिए औरतों का झुण्ड किसी रण के योद्धाओं की तरह अपने लक्ष्य की तरफ इस चिलचिलाती कड़ी धूप और भीषण गर्मी में अपने गांव की तरफ प्रस्थान कर दिया है।
पूरे नाशिक हाईवे पर मजदूरों का ताँता लगा हुआ है।
इसी तरह अब लोगों ने सरकार के नियमों और पुलिस के डर को छोड़कर हिम्मत बांधकर ट्रक, टेम्पो ऑटो रिक्शा, साइकल, मोटर साइकल जो भी संसाधन मिला, उससे अपने गांव की तरह निकल पड़े हैं।
जिन्हें रोकने में सरकारी यंत्रणा पूरी तरह असफल दिखाई पड़ रही है।
भिवंडी से 15 किलोमीटर दूर मुंबई नासिक हाईवे पर स्थित पड़घा टोल नाका के पास डेढ़ से 2 किलोमीटर वाहनों की लम्बी लाइन लग गई थी।
जिसमें केवल मजदूर भरे हुए थे। इन मजदूरों के पलायन से भिवंडी तथा आसपास की मजदूर बस्तियां वीरान होना शुरू हो गई हैं।
मजदूरों के रहने केे लिए बनी सैकड़ों चालों में ताले लग गए हैं। झोपड़पट्टीयां सुनसान नजर आने लगी हैं।
जानकारों की मानें तो भिवंडी से करीब 30,000 से अधिक मजदूर पलायन कर चुके हैं और मजदूरों के पलायन का सिलसिला अभी भी तेजी से जारी है।
अगर मजदूरों के पलायन की स्थिति यही रही और सरकार की तरफ से मजदूरों को रोकने का उचित प्रबंध नहीं किया गया तो एक पखवाड़े में भिवंडी की मजदूर बस्तियां पूरी तरह से खाली हो जाएगी।
जो भिवंडी के विशाल पावरलूम जैसे घरेलू उद्योग के लिए शुभ सूचक नहीं है। क्योंकि मजदूर ही उद्योग के रीढ़ की हड्डी माने जाते हैं।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मजदूरों के पलायन के बाद पावरलूम उद्योग नगरी भिवंडी की पूरी तरह से कमर ही टूट जाएगी।